जब फिल्मी परदे पर तिरंगा लहराना ‘बैन’ था, सिनेमा में आज़ादी से पहले सेंसर बोर्ड की कहानी

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15 अगस्त 2025 से भारत को आजाद हुए 79 साल हो जाएंगे, इस स्वतंत्र देश की आने वाली जनरेशन को इसकी महत्ता की जानकारी अपने बड़े बुजुर्गों, किताबों के साथ फिल्मों से मिलती है कि किन परिस्थितियों में हमारा यह मुल्क अंग्रेजों की बेड़ियों से छूट पाया है।

जब फिल्मी परदे पर तिरंगा लहराना ‘बैन’ था, सिनेमा में आज़ादी से पहले सेंसर बोर्ड की कहानी

स्वतंत्रता के साथ बात जब फिल्मों की हो रही है तो यह भी एक सवाल है कि क्या आजादी के पहले अर्थात 15 अगस्त 1947 से पहले फिल्मों में तिरंगा झंडा दिखाना, देशभक्ति व भावना के नारे लगाने वाले सीन व आजादी की क्रांति दिखाना कितना मुश्किल था? तब ब्रिटिश अंपायर का सेंसर बोर्ड किस तरह से ज्यादती करता था जानेंगे पूरी रियल स्टोरी!

भारतीय सिनेमा का जन्म व ब्रिटिश सेंसर बोर्ड की स्थापना

भारत में सिनेमा की नींव 1806ई. में लूमियार ब्रदर्स के द्वारा बॉम्बे(अब मुंबई) में रखी गई थी, फिरंगियों को लगा कि फिल्में समाज का आईना है इससे जनता में एकता, सद्भाव और क्रांति करने की बगावत जन्म ले सकती है यह एक स्ट्रॉन्ग माध्यम बन सकता है भविष्य में, इस वजह से उन्होंने एक कानून पारित किया और नाम रखा सिनेमेटोग्राफ एक्ट, इस एक्ट के अंतर्गत चार जगह मद्रास, बम्बई, कलकत्ता और रंगून में फिल्म सेंसर बोर्ड की स्थापना हुई।

भारतीय सिनेमा का जन्म व ब्रिटिश सेंसर बोर्ड की स्थापना

सेंसर बोर्ड का मुख्य काम था राष्ट्रभक्ति की भावना को फिल्मों के माध्यम से उठने न देना अर्थात सेंसर का नाम देकर उन सीन को हटा देना, जलियांवाला नरसंहार के बाद की स्थिति यह हो गई कि फिल्मों में राष्ट्र की बात, आजादी की बात और ब्रिटिश हुकूमत की अत्याचार पर फिल्माना मतलब फिल्म सेंसर द्वारा बैन हो जाना, भारतीय फिल्मों पर तो शिकंजा था ही इसके साथ विदेशी फिल्में जैसे सोवियत और अमेरिकन फिल्में भी ज्यादा मात्रा में बैन कर दी गई।

फिल्म में “तिरंगा” दिखाना, राष्ट्र का सबसे बड़ा अपराध

1930 तक तो वैचारिकता का चित्रण करना अपराध था, समाजवादी विचारधारा और स्वतंत्रता का चित्रण भी कई फिल्मों के बंद होने का कारण बना लेकिन 1930 के समय तिरंगा फिल्मों में दिखाना राष्ट्र का सबसे बड़ा अपराध बन गया था।

फिल्म में “तिरंगा” दिखाना, राष्ट्र का सबसे बड़ा अपराध

आज का तिरंगा उस समय का कांग्रेसी झंडा था जिसमें अशोक चक्र की जगह पर चरखा बना था, चूंकि कांग्रेस सामने से लड़ रही थी तो वह एक तरह से विरोध का प्रतीक माना गया और अंग्रेज उसे भारतीय झंडा ही मानते थे। गांधी, नेहरू, पटेल से इंस्पायर कैरेक्टर व क्रांति के नारे तो मुख्य रूप से निषेध थे ही, शुरुआत में  बतौर सजा चलचित्र को काटना या पूरी तरह से रोकना था, लेकिन जैसे जैसे फिल्मों का निर्माण बढ़ा गोरों ने राजद्रोह जैसे संगीन मुकदमे फिल्मकारों पर मढ़ दिए।

सन 1940 के बाद की स्थिति और दयनीय हो गई, डायरेक्टर इतनी मेहनत से उस समय फिल्म बनाते थे और बदले में अंग्रेजी हुकूमत का सेंसर बोर्ड सीन के साथ न्याय न करके उसे प्रतिबंधित कर देते थे। उस समय इतनी तकनीकी व्यवस्था नहीं थी फिल्में बनने में कई साल लग जाते थे एक सीन काटने पर कहानी और समय पर असर पड़ता था। आजादी के पहले वाले दशक में लगभग दो हजार फिल्मों में सैकड़ों फिल्में तो सीधे तौर पर बैन कर दी गई थी।

कुछ भारतीय फिल्में जो सेंसर की बलि चढ़ीं

कुछ फिल्मकार और निर्देशक ऐसे थे जो क्रांति की कहानियों को सुनहले पर्दे पर उकेर कर जनता तक पहुंचना चाह रहे थे जिससे दर्शकों में रोष हो और अंग्रेजी सत्ता पर भारी पड़ें, ऐसी ही कुछ फिल्में हैं जिन्हें अंग्रेजी सेंसर बोर्ड पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया।

कुछ भारतीय फिल्में जो सेंसर की बलि चढ़ीं

  • जलियांवाला नरसंहार और रॉलेट एक्ट के बाद पहली फिल्म 1921ई. में 'भक्त विदुर' नाम की पिक्चर बनी और इस कहानी का मुख्य किरदार विदुर की भूमिका महात्मा गांधीजी से प्रेरित थी, हुकूमत को लगा कि यह तो गांधी के नैतिक मूल्यों के साथ फ्रीडम जैसे मुद्दों को उठा रही है तो धार्मिक सद्भाव और दंगों का हवाला देते हुए इस फिल्म को हमेशा के लिए बैन कर दिया गया।
  • दूसरी फिल्म थी सन 1939 में रिलीज हुई तमिल फिल्म त्याग भूमि, होमग्राउन वेबसाइट के अनुसार इस फिल्म को लगभग 4 महीने थियेटर में चलने के बाद पाबंदी लगा दी गई, वजह गांधीवादी मूल्यों का समर्थन और स्वतंत्रता की बात।
  • 1946ई में वी शांताराम ने 'डॉ कोटनीस की अमर कहानी' नाम की फिल्म का निर्माण किया जिसमें आधी फिल्म चाइनीज क्रांति की झलक दिखाने की वजह से काट दी गई, उस समय सिनेमा बनाने वालों के पास दो ही ऑप्शन होते थे या तो कहानी बदलें या फिर फिल्म को झोले में भरकर भूल जाएं।

सेंसर की वजह से क्रिएटिविटी खत्म

1947 के बाद 1952 में फिर एक बार सिनेमैटोग्राफ एक्ट बना जिसने फिर से गांधी हत्या जैसे ज्वलंत मुद्दों पर बनी फिल्मों में कैंची चलाई लेकिन इस बार हवाला दिया गया नैतिक मूल्यों का, ऐसे में असर यह रहा कि निर्माता, निर्देशक और कलाकारों की रचनात्मक शैली सिमट कर रह गई और बेहतरीन फिल्में बनना लगभग रुक गई लेकिन उसके बाद दौर बदला, अंग्रेजी सोच धीरे धीरे मद्धम होती गई और आज की स्थिति आप लोगों के सामने है।

सेंसर की वजह से क्रिएटिविटी खत्म

आजादी के बाद क्या बदला?

आज के पाठकों को यह जरूर सोचना चाहिए कि फिल्में केवल मनोरंजन नहीं अपितु समाज के ताने बाने को खुलकर दिखाने वाला आईना है और इतिहास में वह आईना जरूर धुंधला रहा है लेकिन अब यह आजाद भारत है तो उस आइने को वक्त पर सफाई भी जरूरी है। आज वेबसरीज से लेकर यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म हैं फ्रीडम के साथ सिनेमा बन भी रहा है और दर्शकों का समर्थन भी बखूबी मिल रहा है, अब आप लोग बताइए कि फिरंगियों के शासन में क्या 'स्वदेश' और 'लगान' जैसी फिल्में बनने के बाद दर्शकों तक पहुंचा पाना संभव हो पाता, आप अपनी राय टिप्पणी के माध्यम से दीजिए।

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